भगवान् महावीर और राजा प्रसेनजित
एक दिन राजा प्रसेनजित अपने सेवकों के साथ भगवान् महावीर से मिलने पहुंचे. महावीर के मुखमंडल पर व्याप्त शांति और शरीर से विकीर्ण होती आभा को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ.
वह भगवान् के सम्मुख जमीन पर बैठ गए और उन्हें नमन करने के बाद बोले, “हे प्रभु!मेरे पास वो हर एक चीज है जो कोई मनुष्य इस दुनिया में प्राप्त करना चाहता है. दौलत, आदर, प्रेमपूर्ण परिवार, विशाल साम्राज्य, सौंदर्य… हर एक चीज है मेरे पास… अब ऐसा कुछ भी नहीं जो मैं प्राप्त करना चाहता हूँ… अब मेरी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं हैi
लेकिन फिर भी जब मैंने आपके बारे में सुना तो मुझे लगा जैसे कि मैं अपूर्ण हूँ… अधूरा हूँ. मैंने सुना है कि आपने “समाधी” जैसी कोई चीज प्राप्त कर ली है. क्या मैं भी इसे प्राप्त कर सकता हूँ? मैं इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हूँ.”
राजा की बात सुनकर महावीर मुस्कुराए और बोले, “यदि आप “समाधी” प्राप्त करना चाहते हैं तो अपने राज्य की राजधानी जाएं जहाँ एक बेहद गरीब व्यक्ति रहता है, उसने भी समाधी हासिल कर ली है और वह गरीब होने के कारण हो सकता है वो उसे आपको बेचना चाहे. मुझसे अधिक वो आपकी मदद कर सकता है.”
यह जानकार प्रसेनजित प्रसन्न हो गया और महावीर की आज्ञा लेकर उस व्यक्ति की तलाश में निकल पड़ा. जल्द ही उसका काफिला एक टूटी-फूटी झोपड़ी के सामने जाकर रुका.
सैनिकों की आवाज पर एक व्यक्ति झोपड़ी में से निकला.राजा बोले, “इन बैलगाड़ियों में अपार धन व हीरे-जवाहरात हैं… तुम ये सब ले लो… और चाहिए तो वो भी बोलो…लेकिन इन सबके बदले तुम मुझे “समाधी” दे दो!”
गरीब व्यक्ति राजा की बात सुन अचरज में पड़ गया और बोला, “यह सम्भव नहीं है महाराज!”
“लेकिन क्यों?”, प्रसेनजित चौंक कर बोले!
गरीब व्यक्ति ने समझाया-
“समाधी” एक मनः स्तिथि है जो निरंतर आध्यात्मिक अभ्यास से प्राप्त की जाती है. दुनिया की सारी दौलत भी इसे खरीद नहीं सकती. आप ही बताइये, क्या आप प्रेम को खरीद सकते हैं? क्या आप किसी का स्नेह क्रय कर सकते हैं? आप एक महान राजा हैं…मैं आपसे प्रेम करता हूँ, आपका आदर करता हूँ, मैं आपके लिए अपना जीवन दे सकता हूँ…लेकिन भला मैं आपका अपनी भावनाएं कैसे दे सकता हूँ?
राजा समझ गए कि “समाधी” कोई वस्तु नहीं जिसे खरीदा जा सके उसे तो अपने तप के बल पर ही प्राप्त किया जा सकता है. वे फ़ौरन भगवान् महावीर के पास वापस लौटे और उसी दिन से उनके शिष्य बन गए.
After attaining knowledge, Lord Mahavir's fame spread in all four directions. People from different sections of the society started gathering to get his darshan and become his disciple. One day King Prasenjit along with his servants came to meet Lord Mahavira. He was surprised to see the peace prevailing on Mahavir's mouth and the aura radiating from the body. He sat on the ground in front of God and after bowing to him said, "Lord, I have everything that a human being wants to achieve in this world. Wealth, respect, loving family, vast empire, beauty… everything I have… now nothing that I want to achieve… Now I have no ambition. But still when I heard about you, I felt as if I am incomplete… I am incomplete. I have heard that you have obtained something like "Samadhi". Can i get it too? I am ready to pay any price for this. " Hearing the king, Mahavira smiled and said, "If you want to get" Samadhi "then go to the capital of your state where a very poor person lives, he has also got Samadhi and due to being poor he may Want to sell it to you. He can help you more than me. "
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